भय यदी मन के भीतर ही रहे प्रणों की रक्षा करता है। यदी वही भय परन्तु मन से बहार आ जाए तो प्रणों का शत्रु भी बन जाता है। इसका अर्थ यह है कि भय, जब तक वह हमारे मन के भीतर रहता है, तब तक वह हमें सुरक्षित रखता है और हमारे जीवन को संरक्षित करता है। लेकिन यदि वही भय हमारे मन से बाहर आकर हमारे कार्यों और सोच पर हावी हो जाए, तो वह हमारे लिए हानिकारक हो सकता है और हमारी शांति और सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है।
संसार का सबसे भयंकर जीव होता है सर्प। परन्तु की यहां यह जनना भी अवशयक है। सर्प एक अत्यन्त भीरु भे प्राणी भी होता है। छुप कर रखता है , झाड़ियों में विचरण करता है। कभी स्पष्ट रूप से सामने नहीं आता। परन्तु एक विचित्र तथ्य यह भी है। सभी सर्प विषईले नहीं होते, ना ही हर किसी को सर्प कटाता है फिर भी सब सर्प से भयभित रहते हैं, क्योंकी सर्प को फुफकारना आता है ?
इसिप्रकर अपने भय को ही अपनी शक्ति बनकर कई वर्ष जीता रहता है स्वयं को सुरक्षित रखता है। भयभित होना कोई बुरी बात नहीं है परन्तु भयभित होने पर भी। अपने भय को अपने शत्रु पर प्रकाट मत होने दो क्योंकी, हर युद्ध लड़कर नहीं जिता जाता कुछ केवल शक्तिशाली होने का अभिनय करके भी जीते जा सकते हैं।
यह विचार इस बात पर जोर देता है कि भय को संतुलन में रखना चाहिए। उचित मात्रा में भय हमें सजग रखता है, लेकिन यदि वह नियंत्रण से बाहर हो जाए, तो वह हमारे जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।